अर्थ... by Deepak Singh

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अधूरे मंद छंद विघटन की ये कथा है,
कुछ दिव्यदीप बुझ जाने की व्यथा है,
जहां की जिदो-उम्मिदों मे सना हुआ है,
ये अंधेरा वक्त सक्त और घना हुआ है

हर सफर मे चैनो सुकूं की आस है,
दुर धुमिल झलकती मंजिल की प्यास है,
राह के पथ भटकन मे रमा हुआ है,
इस स्तिथी-परिस्तिथी मे भी जमा हुआ है

हर बार यहाँ तो नया ऱिझन है,
क्यूंकि हर कृत एक नवीन सृजन है,
एक डगर को पार कर मुदित हआ है,
जैसे अगलि मुशकिल के लिए उदित हुआ है

आशा अभिलाशा का मात्र ये खेल है,
जीवन मृत्यु के चक्कर का सब मेल है,
सत्य की खोज़ को ये मष्तिष्क झुका हुआ है,
अनेक यत्न-परयत्न करके भी रुका हुआ है

मंजिल के करीब आने को बहुत जूझा है,
अंत मृत्यु मात्र मंजिल कोई और ना दुजा है,
मेहनत के सागर मे घिरकर पस्त हुआ है,
साथ ही किसमत का सुरज भी अस्त हुआ है

ये पथ घनघोर घटा अनधड सा है
दुख और सुख का केवल खनडर सा है,
दरजनो यादों का ये सागर सा हुआ है ,
ये जीवन झनझटों का गागर सा हुआ है||





Deepak Singh

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